Thursday, May 5, 2011

आखिरी ख्वाहिश और वसीयत

Why and how I became fan of the Hikmat's poem, I cannot express. When I met his poem in Kalam magazine, first time, then I started to read him where I get. this poem I courtesy from the http://padhte-padhte.blogspot.com.

आखिरी ख्वाहिश और वसीयत : नाजिम हिकमत

कामरेडों, अगर ज़िंदा न बचा मैं वह दिन देखने के लिए 
-- मतलब अगर मर गया मैं आजादी मिलने के पहले ही -- 
मुझे ले जाना  
और दफना देना अन्टोलिया गाँव के कब्रिस्तान में.
मजदूर उस्मान जिसे हसन बे ने गोली मार देने का हुक्म दिया था 
लेट सकता है मेरे एक बगल, और दूसरी बगल शहीद आयशा 
जो मर गई थी चालिस दिनों के भीतर 
बच्चे को जन्म देने के बाद.

ट्रैक्टर और नग्मे गुजर सकते हैं कब्रिस्तान के नीचे से सुबह की रोशनी में,
जहां होंगे नए लोग, जले हुए पेट्रोल की गंध 
सामूहिक मिल्कियत के खेत और पानी नहरों में 
नहीं होगा सूखा या पुलिस का कोई डर. 

ठीक है, हम नहीं सुन पाएंगे वो नग्मे :
मुर्दे पड़े रहते हैं ज़मीन के नीचे पैर पसारे 
सड़ते हुए काली टहनियों की तरह,
अंधे, गूंगे, बहरे ज़मीन में दफ़न.

लेकिन मैं गा चुका हूँ वे नग्मे 
उनके लिक्खे जाने से भी पहले,
और सूंघ चुका हूँ जले हुए पेट्रोल की वह गंध 
जब खाका भी नहीं खींचा गया था ट्रैक्टर का.

जहां तक मेरे पड़ोसियों की बात है, 
मजदूर उस्मान और शहीद आयशा, 
शायद अनजाने में ही, 
उनकी भी थी यही हसरत अपने जीते जी.

कामरेडों, अगर मर गया मैं उस दिन के पहले,
-- जिसकी संभावना बढ़ती नजर आ रही है अब -- 
दफना देना मुझे अन्टोलिया गाँव के कब्रिस्तान में,
और अगर कहीं मिल जाए आस-पास,
एक पेड़ रह सकता है मेरे सिरहाने,
पत्थर या किसी और चीज की जरूरत नहीं मुझे.  
                
                                         मास्को, बारविहा अस्पताल 

(अनुवाद : Manoj Patel)

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